असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षुर्न चेतरः।
निश्चित्य कल्पितं पश्यन् ब्रह्मैवास्ते महाशयः।। 204।।
यस्यांतः स्यादहंकारो न करोति करोति सः।
निरहंकारधीरेण न किंचिद्धि कृतं कृतम्।। 205।।
नोद्विग्नं न च संतुष्टमकर्तृस्पंदवर्जितम्।
निराशं गतसंदेहं चित्तं मुक्तस्य राजते।। 206।।
निर्ध्यातुं चेष्टितुं वापि यच्चित्तं न प्रवर्तते।
निर्निमित्तमिदं किंतु निर्ध्यायति विचेष्टते।। 207।।
तत्त्वं यथार्थमाकर्ण्य मंदः प्राप्नोति मूढ़ताम्।
अथवाऽऽयाति संकोचममूढ़ः कोऽपि मूढ़वत्।। 208।।
एकाग्रता निरोधो वा मूढैरभ्यस्यते भृशम्।
धीराः कृत्यं न पश्यन्ति सुप्तवत् स्वपदे स्थिताः।। 209।।
असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षुर्न चेतरः।
निश्चित्य कल्पितं पश्यन् ब्रह्मैवास्ते महाशयः।।
पहला सूत्र: ‘महाशय पुरुष विक्षेपरहित और समाधिरहित होने के कारण न मुमुक्षु है, न गैर-मुमुक्षु है; वह संसार को कल्पित देख ब्रह्मवत रहता है।’