चित्रकेतु के वृत्रासुर बनने की कथा | Chitraketu

इतिहास पुराण की कथाएं Itihas Puran Ki Kathaye

02-11-2022 • 17 mins

जो भी ऋषि दधीचि की कथा से परिचित है उसे पता है कि किस प्रकार असुर वृत्त्र किसी भी धातु से बने हुए अस्त्र से अवध्य था और उसका संहार करने के लिए ऋषि दधीचि ने अपने प्राणों का परित्याग कर अपनी अस्थियाँ देवराज इन्द्र को दान कर दी थीं। यह कहा उसी वृत्त्र के पूर्व जन्म की है।  शूरसेन देश में चित्रकेतु नामक एक राजा हुए जिन्होंने पूरी पृथ्वी पर विजय प्राप्त की। राजा की शक्ति इतनी थी कि उनके राज्य में रहने वालों के लिए समस्त खाने की चीज़ें स्वयं ही उत्पन्न होती थीं। राज्य में सुख-समृद्धि ऐसी थी कि प्रजा, राजा को दूसरा ईश्वर मानती थी। धन-दौलत, ऐश्वर्य, चित्रकेतु को किसी भी वैभव की कमी नहीं थी। अपने पराक्रम और शौर्य से उन्होंने कई सुंदर स्त्रियों का ह्रदय भी जीता था। कुल-मिलाकर चित्रकेतु की एक करोड़ रानियाँ थीं। परंतु इतने सब ऐश्वर्य के बाद भी वह निःसंतान थे। इसलिए सदैव उनका मन चिंतित रहता था।  एक दिन तीनों लोकों का भ्रमण करने हेतु निकले प्रजापति अंगिरा ऋषि ने चित्रकेतु के महल में आतिथ्य स्वीकार किया। राजा के पास सब कुछ होने के बाद भी उनका उदास चेहरा देख ब्रह्मर्षि ने उनसे इसका कारण पूछा। चित्रकेतु ने उत्तर देते हुए कहा, "हे भगवन! समग्र सृष्टि के सारे सुगंधित फूल मिलकर भी जैसे किसी भूखे मनुष्य की भूख नहीं मिटा सकते, वैसे ही यह समस्त ऐश्वर्य मिलकर भी एक निःसंतान पिता का दुःख दूर नहीं कर सकते। भूखे मनुष्य को जिस तरह खाद्य की आवश्यकता है ठीक उसी तरह, हे भगवन, मुझे एक पुत्र प्रदान कर मेरी इस पीड़ा को हर लें।"  त्रिकालदर्शी ऋषि अंगिरा को यह भली-भांति पता था कि चित्रकेतु के भाग्य में संतान सुख नहीं है, परंतु उनके हठ के आगे ब्रह्मर्षि भी विवश हो गए। अतएव यज्ञ का आयोजन कर उससे उत्पन्न चरु को उन्होंने राजा की पटरानी कृतद्युति को दिया। समय आने पर कृतद्युति ने एक अत्यंत सुंदर पुत्र को जन्म दिया। एक करोड़ रानियाँ होने के बाद भी निःसंतान रहने वाले चित्रकेतु के लिए पहली संतान का सुख स्वर्ग लोक पर विजय प्राप्त करने से भी अधिक आनंददायी था। राजकुमार के आ जाने से पूरे राज्य में मानो उत्सव का माहौल बन गया था।  परंतु यह खुशियाँ अधिक दिनों तक टिकने नहीं वाली थीं। चूँकि रानी कृतद्युति ने राजकुमार को जन्म दिया था, तो राजा स्वयं ही अपनी पटरानी की ओर अपना समस्त ध्यान देने लगे। यह देख बाकी की रानियों में ईर्ष्या भाव उत्पन्न होने लगा। उनका द्वेष इतना बढ़ गया कि वह राजा से उनकी तरफ विमुखता के लिए नवजात शिशु को ही दोषी समझने लगीं। यह घृणा इतनी बढ़ गई कि, एक दिन क्रोध में आकर उन्होंने नन्हे राजकुमार को विष दे दिया। जब तक कृतद्युति को यह पता चलता तब तक बहुत देर हो चुकी थी, राजकुमार के प्राणों ने उनके नश्वर शरीर को त्याग दिया था।  अपने बेटे के मृत शरीर को देख हर माता-पिता की जो अवस्था होती है वही राजा चित्रकेतु और रानी कृतद्युति की भी हुई। दोनों अपने भाग्य को कोसते हुए छाती पीट पीट कर रोने लगे। थोड़ी देर में चित्रकेतु संज्ञाहीन होकर नीचे गिर पड़े। राजा की यह हालत देख कर स्वर्ग से अंगिरा ऋषि और देवर्षि नारद स्वयं चित्रकेतु के पास आये और उन्हें समझाने लगे।