गरुड़ का लाया हुआ अमृत पात्र नागों के अमृत पीने से पहले ही इन्द्र ले गए और नाग बिना अमृत के ही रह गए। अब माता के शाप से बचने का कोई और उपाय सोचने लगे।
इन सर्पों में एक शेषनाग ने अपने भाइयों के बर्ताव से परेशान होकर उनसे अलग जीवन बिताने की सोची। शेषनाग ने अपना मन ब्रह्मा की आराधना में लगाया और वर्षों तक केवल हवा पीकर कठिन तपस्या की। अंत में ब्रह्मा जी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उनको दर्शन दिए।
ब्रह्मदेव ने शेषनाग से पूछा,"शेष! तुम्हारी इस कठिन तपस्या का उद्देश्य क्या है? क्यों तुम खुद को इतना कष्ट दे रहे हो?" शेष ने ब्रह्मदेव को उत्तर दिया,"भगवन! मेरे सारे भाई महामूर्ख हैं और हमेशा आपस में लड़ते रहते हैं। विनता और उसके पुत्रों अरुण और गरुड़ से भी बिना बात का बैर ले रखा है। मैं उनके साथ नहीं रहना चाहता। मेरे इस तप का यही उद्देश्य है कि मैं किसी प्रकार अपने भाइयों से दूर जा सकूँ।"
ब्रह्माजी ने कहा,"शेष! तुम्हारे भाइयों की करतूत मुझसे छिपी नहीं है। वो अपने बल के अहंकार में दूसरों को कष्ट देने लगे हैं। उनको कद्रू का दिया गया शाप बिल्कुल भी अनुचित नहीं है। सौभाग्यवश तुम्हारा ध्यान धर्म में अटल है। तुम उनकी चिंता छोड़ो और अपने लिए जो भी वर चाहते हो माँग लो।"
शेषनाग ने कहा,"पितामह! मैं यही चाहता हूँ कि मेरी बुद्धि सदा धर्म और तप में अटल रहे और मेरा भाइयों से मेरा कोई सरोकार ना हो।"
ब्रह्माजी ने कहा,"शेष! तुम्हारे इन्द्रियों और मन के संयम से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। मेरी आज्ञा से तुम संसार के हित के लिए एक काम करो। यह पृथ्वी पर्वत, सागर, वन, ग्राम इत्यादि के साथ सदा डोलती रहती है। तुम इसे इस प्रकार जकड़ लो कि यह स्थिर हो जाये। इससे तुम्हारे साथ-साथ सभी का भला होगा।"
शेषनाग ने ब्रह्माजी की बात मान ली और पृथ्वी को समुद्र के अंदर से ऐसा जकड़ लिया की पृथ्वी स्थिर हो गयी।
इस प्रकार शेषनाग के जीवन को अपने भाइयों से अलग एक उद्देश्य मिला और पृथ्वी को स्थिरता। लेकिन शेषनाग के भाइयों को उनका जीवन बचाने का अभी तक कोई रास्ता नहीं मिला था।